कलयुग में बुद्ध पूर्णिमा का तात्पर्य
गौतम बुद्ध का जीवन केवल एक धर्मगुरु की कथा नहीं, बल्कि एक साधक की खोज है — आत्मबोध की, सत्य की, और मुक्ति की।
कृष्णा गुरुजी कहते हैं:
“ईश्वर ने हर मनुष्य को सम्पूर्ण शक्तियों के साथ जन्म दिया है, परंतु बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी जिज्ञासा को इतना बड़ा बना पाते हैं कि वे सबकुछ त्याग कर जीवन के गूढ़ प्रश्नों की खोज में निकल जाएं।”
सिद्धार्थ का जन्म वैशाख पूर्णिमा के दिन कपिलवस्तु के राजपरिवार में हुआ। एक दिन नगर भ्रमण पर उन्होंने देखा — जन्म, वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु। यह दृश्य उन्हें झकझोर गया। मन में सवाल उठा —
“जीवन का सत्य क्या है?”
इस सवाल की शक्ति इतनी प्रबल थी कि वे राजपाट, परिवार और सुख-सुविधा छोड़कर निकल पड़े — सिर्फ एक उत्तर की तलाश में। यह त्याग कोई सामान्य मनुष्य नहीं कर सकता।
उन्होंने आत्म-साधना, ध्यान और मौन को साधन बनाया और बुद्धत्व प्राप्त किया। वैशाख पूर्णिमा ही उनका निर्वाण दिवस भी है।
बौद्ध धर्म के तीन मूल सूत्र
1. बुद्धं शरणं गच्छामि — मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ
2. धम्मं शरणं गच्छामि — मैं धर्म की शरण में जाता हूँ
3. संघं शरणं गच्छामि — मैं संघ की शरण में जाता हूँ
कृष्णा गुरुजी की कलयुगी व्याख्या:
1. बुद्धि की शरण में रहो, भावनाओं की नहीं।
2. धर्म का पालन करो, लेकिन दिखावे के बिना।
3. समूह के साथ चलो, सिर्फ अपने स्वभाव के नहीं, सामूहिक हित के साथ।
और सबसे महत्वपूर्ण संदेश:
“जब भी कोई जिज्ञासा उठे — उसे छोड़ो मत, जानो। यही मोक्ष की पहली सीढ़ी है।”

