✨ विघ्नहर्ता अवॉर्ड का जन्म कैसे हुआ | कृष्णा गुरुजी की आत्मकथा
लेखक: कृष्णा गुरुजी
यह कथा आरती से शुरू होती है और सेवा पर समाप्त नहीं होती। यह निरंतर साधना है,
जो हर दिन किसी के जीवन में प्रकाश बनना सिखाती है।
आरती से उठी आवाज़, और फिर संकल्प
लगभग सात वर्ष पहले मैं घर पर गणेश आरती गा रहा था।
पंक्तियाँ थीं— “अन्धन को आंख देत, कोड़न को काया, बाझन को पुत्र देत, निर्धन को माया।”
तभी भीतर एक स्वर उठा— “आरती गाएगा या मेरा काम भी करेगा?”
यह केवल विचार नहीं था। यह अंतरात्मा का स्पष्ट संकेत था।
गणेश आरती का मानवीकरण: संदेश और मार्ग
मैंने आरती को कर्म में उतारा। हर पंक्ति ने दिशा दी।
- “अन्धन को आंख देत” — नेत्रदान के लिए जागरूकता फैलाओ। किसी की आँख बनो।
- “कोड़न को काया” — कुष्ठ रोगियों को सम्मान दो। उनकी मदद करो। उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ो।
- “बांझन को पुत्र देत” — पुत्र और पुत्री समान हैं। मातृत्व का मान बढ़ाओ।
- “निर्धन को माया” — निर्धनों को शिक्षा दो। ज्ञान ही स्थायी संपत्ति है।
परिणामस्वरूप, आरती केवल गीत न रही। वह जीवन का मार्ग बन गई।
सेवा की शुरुआत: छोटे कदम, बड़ा असर
सबसे पहले मैं कुष्ठ आश्रम सेवा सदन पहुँचा। वहाँ गणेश स्थापना की।
इसके बाद यह परंपरा हर वर्ष जारी रही।
साथ ही, नेत्रदान जागरूकता रैली निकाली। मैं महाकाल परिसर के भिक्षुकों तक पहुँचा।
फिर बस्तियों में बच्चों को पढ़ाने की कक्षाएँ शुरू कीं।
ये कदम छोटे थे, पर प्रभाव गहरा था। लोगों के मन में आशा जागी।
वर्ष 2024: एक नई पुकार, एक नई दिशा
समय बीता। फिर 2024 में वही अनुभूति फिर लौटी।
आरती के बीच आवाज़ आई—
“अकेला क्या-क्या कर लेगा? जो मेरे काम कर रहे हैं, उनको प्रणाम कर। उनमें भी मुझको देख।”
मैं ठिठक गया। संदेश स्पष्ट था।
अकेले की सेवा सीमित है। इसलिए, गुमनाम सेवकों को पहचान दो।
यहीं से जन्मा— विघ्नहर्ता अवॉर्ड
मैंने संकल्प लिया। जो लोग बिना बैनर, बिना प्रचार और निस्वार्थ भाव से काम कर रहे हैं,
उन्हें घर जाकर सम्मानित किया जाएगा। यही विघ्नहर्ता अवॉर्ड की नींव बनी।
वास्तव में, किसी को सम्मान देना केवल पुरस्कार नहीं है। यह समाज को दिशा देना है।
देने का सुख: जो पाने से बड़ा है
सच कहूँ तो देने का आनंद अलग होता है। मैं जब किसी सेवाभावी के घर जाता हूँ,
उनकी आँखों की चमक सब कह देती है। वही क्षण मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है।
अंततः, मैंने तय किया— जब तक साँस है, तब तक ऐसे विघ्नहर्ताओं को खोजता रहूँगा
और उन्हें प्रणाम करता रहूँगा।
ईश्वर की आवाज़: भीतर से आती है
कई लोग पूछते हैं— क्या सचमुच कोई दिव्य आवाज़ आई?
मेरा उत्तर सरल है— जब अंतरात्मा बोलती है, वही ईश्वर की आवाज़ होती है।
इसलिए, हर उस व्यक्ति को नमन करो जो चुपचाप सेवा में लगा है।
वहीं सच्ची आरती है। वहीं सच्ची पूजा है।
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