शिष्य ने पूछा — “गुरुजी, विषम परिस्थिति में संतुष्ट कैसे रहें?”
कृष्णा गुरुजी ने उत्तर में एक कथा सुनाई —
ज्ञानचंद बहुत ही ईमानदारी से काम करता था।
मालिक ने तनख्वाह बढ़ाई — वही समर्पण।
तनख्वाह घटाई — वही समर्पण।
दो बार घटाई — वही समर्पण।
मालिक हैरान हुआ और पूछा — “तुम्हें फर्क क्यों नहीं पड़ता?”
ज्ञानचंद ने कहा —
“जब तनख्वाह बढ़ी — बेटी हुई — भाग्य से बढ़ी।
जब घटाई — पिता का निधन — उनका भाग्य चला गया।
फिर घटाई — माता का निधन — उनका भाग्य समाप्त।
मैं वही हूँ। मेरा कर्म और संतोष मेरे नियंत्रण में है।”
गुरुजी ने कहा —
“कलयुग में जो व्यक्ति परिस्थितियों को समभाव और संतोष से स्वीकारता है, वही शांत रहता है।
कर्म करो, फल पर आश्रित मत रहो। यही संतोष का मार्ग है।”